Aug 22, 2011
अन्ना अनशन
अन्ना
का
अनशन
भ्रष्टाचार के
खिलाफ
खिला रहा है
दिलों में
लोगों के
उम्मीदों का
गुलशन
और
बढ़ा रहा है
भ्रष्ट
नेताओं
का
टेंशन !
Jun 7, 2010
सहारा
May 24, 2010
May 13, 2010
भविष्य
May 12, 2010
इरादा
May 10, 2010
इन्तजार
May 7, 2010
Apr 21, 2010
Apr 20, 2010
ज्वाब
Apr 16, 2010
मंजिल
Apr 15, 2010
कैट
Apr 13, 2010
चेहरा
हँसतें-हँसतें
रोने का
अंदाजे बयां भी देखा
रोते-रोते
हँसने का
अंदाजे बयां भी देखा
और
इन दोनों के बीच
असमंजस से घिरा
वो
मंजर भी देखा
उस चेहरे का
जो
खुद-खुद पे
संवर जाता है
अपनी ही
हंसी के दायरे में
खुद-खुद पे
भिखर जाता है
अपने ही
आंसुओं के पैमाने में
सच
क्या कहूँ
इस नक्शे कदम का
जिसका अक्स
उभरता है
उस चेहरे पे
जो
दिन-प्रतिदिन
ओर भी
प्यारा-प्यारा सा
लगता है !
रोने का
अंदाजे बयां भी देखा
रोते-रोते
हँसने का
अंदाजे बयां भी देखा
और
इन दोनों के बीच
असमंजस से घिरा
वो
मंजर भी देखा
उस चेहरे का
जो
खुद-खुद पे
संवर जाता है
अपनी ही
हंसी के दायरे में
खुद-खुद पे
भिखर जाता है
अपने ही
आंसुओं के पैमाने में
सच
क्या कहूँ
इस नक्शे कदम का
जिसका अक्स
उभरता है
उस चेहरे पे
जो
दिन-प्रतिदिन
ओर भी
प्यारा-प्यारा सा
लगता है !
Apr 12, 2010
गुडिया
Apr 8, 2010
जीवन का मोल
आजकल
खेल के
मैदान में
शराब
और
शवाब
का भी
चल रहा है
खूब खेल
टिकटों की
सेल में भी
धडल्ले से चल रहा है
ब्लैकमेल
नेता और अभिनेता भी
बढ-चढ़कर
प्ले कर रहे है
अपना रोल
तोल-तोल के
बोल-बोल के
खिलाडियों का
लगा रहे है
करोडों का मोल
इसी में इनको
नज़र
आ रहा है
अपने
अनमोल जीवन का
मोल
खेलों के
नाम पर
फल-फूल रहा है
ये
अंधेरगर्दी का
खेल
जिस देश में
अनगिनत लोग़
भूख और गरीबी की
मार रहे है
झेल
बेचकर
खून अपना
कुछ पल जीकर
देख रहे है
जिन्दगी का
खेल !
खेल के
मैदान में
शराब
और
शवाब
का भी
चल रहा है
खूब खेल
टिकटों की
सेल में भी
धडल्ले से चल रहा है
ब्लैकमेल
नेता और अभिनेता भी
बढ-चढ़कर
प्ले कर रहे है
अपना रोल
तोल-तोल के
बोल-बोल के
खिलाडियों का
लगा रहे है
करोडों का मोल
इसी में इनको
नज़र
आ रहा है
अपने
अनमोल जीवन का
मोल
खेलों के
नाम पर
फल-फूल रहा है
ये
अंधेरगर्दी का
खेल
जिस देश में
अनगिनत लोग़
भूख और गरीबी की
मार रहे है
झेल
बेचकर
खून अपना
कुछ पल जीकर
देख रहे है
जिन्दगी का
खेल !
Apr 7, 2010
फंडा
Apr 6, 2010
रिश्ते
Apr 5, 2010
आंगन
अन्धकार को
चीरती हुई
जब सुबह
सूर्य की
पहली किरण के साथ
मन के
आंगन में उतरती है
तब
मन के आंगन में
विचारों के
नये अंकुर फूटने लगते है
सपनों की
कलियाँ खिलने लगती है
प्रतिदिन
कुछ ऐसी ही
प्रतिक्रिया अनुभव होती है
परन्तु
साँझ होते-होते
सूर्य की
अन्तिम किरण के साथ-साथ
अंकुरों का
अपना कोई रूप नही रह जाता
सपनों की
कलियाँ
टूट-टूट कर
भिखरने लगती है
और
मन के आंगन के
गहन अन्धकार में
निराशा के
तारे
टिमटिमाने लगते है !
चीरती हुई
जब सुबह
सूर्य की
पहली किरण के साथ
मन के
आंगन में उतरती है
तब
मन के आंगन में
विचारों के
नये अंकुर फूटने लगते है
सपनों की
कलियाँ खिलने लगती है
प्रतिदिन
कुछ ऐसी ही
प्रतिक्रिया अनुभव होती है
परन्तु
साँझ होते-होते
सूर्य की
अन्तिम किरण के साथ-साथ
अंकुरों का
अपना कोई रूप नही रह जाता
सपनों की
कलियाँ
टूट-टूट कर
भिखरने लगती है
और
मन के आंगन के
गहन अन्धकार में
निराशा के
तारे
टिमटिमाने लगते है !
Apr 1, 2010
Mar 31, 2010
अलविदा
Mar 30, 2010
महफ़िल
Mar 29, 2010
घोटसाला
Mar 26, 2010
ऐ दोस्त
Mar 25, 2010
कैसे करूँ सिंगार
Mar 10, 2010
वसीयत
Mar 9, 2010
अभिलाषा
क्या बताऊँ यार
क्यों
अक्सर खो जाता हूँ
मैं
गुम सुम सा होकर
मुख पे
शून्य का भाव लिए
अतीत में !
काफी अरसे से
कुछ कर
गुजरने की तमन्ना है
दिल में
कुछ कर गुजरना है
मुझे
अपने आप को
हिमालय के शिखर तक
ऊँचा उठाने के लिए
और
अपने नाम के शब्दों को
सुबह की
सूर्य की
किरणों से
जोड़ने के लिए
कभी -कभी
जब आता है ध्यान
कम है जिन्दगी
सफ़र है लम्बा
अब
कुछ कर गुजरना ही चाहिए
मुझको
पर
भटक जाता हूँ अक्सर
चलता हुआ
जीवन की
इस लम्बी सी
टेढ़ी मेढ़ी डगर पर
भटकने के साथ -साथ
अटक भी जाता हूँ
जब कभी
मजबूर हो जाता हूँ
फिर
मुख मोड़ कर्तव्य से
खो जाता हूँ
सपनों की दुनिया में
तब ओर भी
मायूस हो जाता हूँ
जब
सपनों के शहर में
खोकर भी
पाता हूँ
अपनी तमन्ना की परछाई का
अक्स
खंडहर का रूप लिए !
क्यों
अक्सर खो जाता हूँ
मैं
गुम सुम सा होकर
मुख पे
शून्य का भाव लिए
अतीत में !
काफी अरसे से
कुछ कर
गुजरने की तमन्ना है
दिल में
कुछ कर गुजरना है
मुझे
अपने आप को
हिमालय के शिखर तक
ऊँचा उठाने के लिए
और
अपने नाम के शब्दों को
सुबह की
सूर्य की
किरणों से
जोड़ने के लिए
कभी -कभी
जब आता है ध्यान
कम है जिन्दगी
सफ़र है लम्बा
अब
कुछ कर गुजरना ही चाहिए
मुझको
पर
भटक जाता हूँ अक्सर
चलता हुआ
जीवन की
इस लम्बी सी
टेढ़ी मेढ़ी डगर पर
भटकने के साथ -साथ
अटक भी जाता हूँ
जब कभी
मजबूर हो जाता हूँ
फिर
मुख मोड़ कर्तव्य से
खो जाता हूँ
सपनों की दुनिया में
तब ओर भी
मायूस हो जाता हूँ
जब
सपनों के शहर में
खोकर भी
पाता हूँ
अपनी तमन्ना की परछाई का
अक्स
खंडहर का रूप लिए !
Mar 5, 2010
हलचल
शोर मच गया
शोर मच गया
हर दिशां आसमां में
चाँद खो गया
चाँद खो गया
असमंजस में पड़ गया
छोटे से बड़ा
हर एक ग्रह
कहाँ गया
प्यारा सलौना सा
चाँद
आसमां से धरती तक
तारों ने बिछा दिया
अपना जाल
लग रहा है
सजी है आज धरती
एक
दुल्हन की तरह
और
ढूंढ़ रहे है
टिमटिमाते हुए
प्यारे
चाँद को
ढूंढते-ढूंढते
थक कर
जब बुझने से लगे
तभी
समुन्द्र की गहराई में से
लहरों की तरंगो पे
अठखेलिया करता
निकला चाँद
जिसमे
अक्सर चाँद
देखता था
अपने अक्स को
मुस्कराता हुआ बोला
निराश ना हो
ऐ मेरे प्यारे दोस्तों
ओर ना हो जाऊं
दूषित मैं
कुछ क्षण के लिए
गया था छुप
आते देख
अपनी तरफ
एक ओर राकेट को
और
सोचकर
गतिविधिया महाशक्तियों की
छेदकर
मानव की मानवता को
पर्यावरण की चादर को
कर दिया धराशाही
धरती को
नित्य
मिसाइल ओर परमाणू
परिक्षण से
लेकिन
मानो कह रहे हों
अब बारी तुम्हारी है
अ चन्द्रमा
परन्तु
मै तो
समय और सृष्टि की
नियम की कड़ियों से
जुडा हूँ
मुझे तो
हर हाल में
दूषित वातावरण में भी
ब्रहमाण्ड में रहकर
निरन्तर
सृष्टि के लिए
घूमते ही जाना है
अपनी ही धुरी पर
स्थिर गति से
घूमते ही जाना है !
शोर मच गया
हर दिशां आसमां में
चाँद खो गया
चाँद खो गया
असमंजस में पड़ गया
छोटे से बड़ा
हर एक ग्रह
कहाँ गया
प्यारा सलौना सा
चाँद
आसमां से धरती तक
तारों ने बिछा दिया
अपना जाल
लग रहा है
सजी है आज धरती
एक
दुल्हन की तरह
और
ढूंढ़ रहे है
टिमटिमाते हुए
प्यारे
चाँद को
ढूंढते-ढूंढते
थक कर
जब बुझने से लगे
तभी
समुन्द्र की गहराई में से
लहरों की तरंगो पे
अठखेलिया करता
निकला चाँद
जिसमे
अक्सर चाँद
देखता था
अपने अक्स को
मुस्कराता हुआ बोला
निराश ना हो
ऐ मेरे प्यारे दोस्तों
ओर ना हो जाऊं
दूषित मैं
कुछ क्षण के लिए
गया था छुप
आते देख
अपनी तरफ
एक ओर राकेट को
और
सोचकर
गतिविधिया महाशक्तियों की
छेदकर
मानव की मानवता को
पर्यावरण की चादर को
कर दिया धराशाही
धरती को
नित्य
मिसाइल ओर परमाणू
परिक्षण से
लेकिन
मानो कह रहे हों
अब बारी तुम्हारी है
अ चन्द्रमा
परन्तु
मै तो
समय और सृष्टि की
नियम की कड़ियों से
जुडा हूँ
मुझे तो
हर हाल में
दूषित वातावरण में भी
ब्रहमाण्ड में रहकर
निरन्तर
सृष्टि के लिए
घूमते ही जाना है
अपनी ही धुरी पर
स्थिर गति से
घूमते ही जाना है !
Mar 4, 2010
चमगादड़ व नेता
दिल्ली का
व़ी आई पी एरिया
जहाँ पर है
हरे भरे घने बड़े-बड़े
पेड़ो का घेरा
वहां पर है
देश के भावी
नेताओ का डेरा
साँझ होते होते
घने पेड़ो पर
लग जाता है
बडे-बडे
चमगादड़ो का मेला
देखिये कुदरत का खेल
एक ही जगह पर है
दोनों का मेल
है दोनों में कितना भाईचारा
काम भी एक है
खून पीना
चमगादड़ पीते है
भोले भाले जानवरों व पशुओं का खून
भावी नेता पीते है
देश की
भोली भली जनता का खून !
व़ी आई पी एरिया
जहाँ पर है
हरे भरे घने बड़े-बड़े
पेड़ो का घेरा
वहां पर है
देश के भावी
नेताओ का डेरा
साँझ होते होते
घने पेड़ो पर
लग जाता है
बडे-बडे
चमगादड़ो का मेला
देखिये कुदरत का खेल
एक ही जगह पर है
दोनों का मेल
है दोनों में कितना भाईचारा
काम भी एक है
खून पीना
चमगादड़ पीते है
भोले भाले जानवरों व पशुओं का खून
भावी नेता पीते है
देश की
भोली भली जनता का खून !
Mar 3, 2010
खिलौना
तेरी दास्तान समझ न सका कोई
बचपन से मृत्यु के अन्तिम सफ़र तक
ए जिन्दगी !
कितनी ही परिभाषाएँ बना डाली,
कवियों,महापुरषों ने तुझ पर
पर
तू अपने में ही
मस्त लहराती
तय करती रहती है
सुबह शाम
अपना सफ़र
इस कशमकश में
कोई गम से बन गया शराबी
कोई पागल, कोई कवि, कोई शायर
शायद
कोई-कोई देखकर रंग तेरे
तोड़ गया दम
आधे सफ़र में
दूर खड़ी हंसती है तू
बेबसी पर इन्सान की
किसी-किसी का बना डाला जीवन
जानवर से भी बदतर
क्यों
मेरी परिकल्पना का रूप समझ रहा है
शायद
बनाई है
कितनी रंग बिरंगी खेलने को वस्तुएँ
इन्सान के लिए
पर
अपने लिए खेलने को
सिर्फ इन्सान !
बचपन से मृत्यु के अन्तिम सफ़र तक
ए जिन्दगी !
कितनी ही परिभाषाएँ बना डाली,
कवियों,महापुरषों ने तुझ पर
पर
तू अपने में ही
मस्त लहराती
तय करती रहती है
सुबह शाम
अपना सफ़र
इस कशमकश में
कोई गम से बन गया शराबी
कोई पागल, कोई कवि, कोई शायर
शायद
कोई-कोई देखकर रंग तेरे
तोड़ गया दम
आधे सफ़र में
दूर खड़ी हंसती है तू
बेबसी पर इन्सान की
किसी-किसी का बना डाला जीवन
जानवर से भी बदतर
क्यों
मेरी परिकल्पना का रूप समझ रहा है
शायद
बनाई है
कितनी रंग बिरंगी खेलने को वस्तुएँ
इन्सान के लिए
पर
अपने लिए खेलने को
सिर्फ इन्सान !
Feb 25, 2010
वादा
जिन्दगी मे किसी से,
किया वादा
निभा सकूँ, या ना निभा सकूँ
पर तुझ से तो वादा निभाना ही पड़ेगा
ए मौत !
जजबात मे बहकर
कभी तुझ से भी, वादा किया था मैंने
तू सौं शक्लो मे लहराती फिरती है
पहले
जब कभी ध्यान आता था
की तुझ से वादा निभाना है
तो तेरी
हर शक्ल की हर लहर से ही
कांप उठती थी जिन्दगी
पर
आज ना जाने क्यों
तुझे अपनाना चाहती है जिन्दगी
तेरी लहरों में, लुप्त हो जाना चाहती है जिन्दगी
तेरी आगोश में सर रखकर, सो जाना चाहती है जिन्दगी
अपनी आखरी शाम
तेरे दामन में समेट देना चाहती है जिन्दगी
तेरे से वादा निभाने की, मोहर बन कर रह गई है जिन्दगी
तेरे नाम से ही थोडा बहुत
शाम ढ़लने का मंजर, ख़ूबसूरत सा लगता है
इस जिन्दगी में
तेरे ही दम से बहार रह गई है
इस जिन्दगी में
बस तेरे से ही
वादा निभाने का इंतजार रह गया है
इस जिन्दगी में
लिबास ओड़कर काली स्याही का
आ भी जा
जिन्दगी की मोहर पर लिखे
अपने वादे का
वादा निभा भी जा !
किया वादा
निभा सकूँ, या ना निभा सकूँ
पर तुझ से तो वादा निभाना ही पड़ेगा
ए मौत !
जजबात मे बहकर
कभी तुझ से भी, वादा किया था मैंने
तू सौं शक्लो मे लहराती फिरती है
पहले
जब कभी ध्यान आता था
की तुझ से वादा निभाना है
तो तेरी
हर शक्ल की हर लहर से ही
कांप उठती थी जिन्दगी
पर
आज ना जाने क्यों
तुझे अपनाना चाहती है जिन्दगी
तेरी लहरों में, लुप्त हो जाना चाहती है जिन्दगी
तेरी आगोश में सर रखकर, सो जाना चाहती है जिन्दगी
अपनी आखरी शाम
तेरे दामन में समेट देना चाहती है जिन्दगी
तेरे से वादा निभाने की, मोहर बन कर रह गई है जिन्दगी
तेरे नाम से ही थोडा बहुत
शाम ढ़लने का मंजर, ख़ूबसूरत सा लगता है
इस जिन्दगी में
तेरे ही दम से बहार रह गई है
इस जिन्दगी में
बस तेरे से ही
वादा निभाने का इंतजार रह गया है
इस जिन्दगी में
लिबास ओड़कर काली स्याही का
आ भी जा
जिन्दगी की मोहर पर लिखे
अपने वादे का
वादा निभा भी जा !
शामे-गम
शामे-गम
अँधेरे के साए घिरने लगे ,
दिल का चिराग रोशन हुआ
दिमाग में कोंधी बिजली,
सादगी चाहिए
गुजारने को जिन्दगी,
उभरा चाँद उफक पर, तारे चमके,
मगर हम
तरसते रहे रोशनी के लिए !
शामे-गम
दिमाग भोझिल
दिल में उभरे यादों के अक्स
कुछ ऐसे,
जो भुलाये न भूले
शाम की गहराई
जाने कब
डूब चुकी थी अँधेरे के समन्दर में,
और मै सोचता ही रह गया !
शामे-गम
पड़ गई नजर बरगद की शाख पर
चिड़ियों की चचाहाहट
दिन भर की भटकन के बाद
रैन बसेरे में आ कर
कितने खुश है ये पंछी
सूरज जब निकलेगा ,
उड़ जाएँगे,फिर से
जिन्दगी की तलाश में !
आज की यह शाम ढलेगी
जिन्दगी का एक और दिन
समेट कर ले जाएगी !
शामे-गम
एक सितारा टूटा आसमान से
जैसे किसी की किस्मत का टूटा हो तारा,
बैठे ही बैठे झपकी सी आ गई
हाथ में कलम और मेज पर कागज थे,
और शायद मै कवि बन गया था !
खुली जब आँख,
आसमान लाल था !
मै हैरान था !
अब उफक की लाली थी
शामे- गम का कहीं पता ना था !
अँधेरे के साए घिरने लगे ,
दिल का चिराग रोशन हुआ
दिमाग में कोंधी बिजली,
सादगी चाहिए
गुजारने को जिन्दगी,
उभरा चाँद उफक पर, तारे चमके,
मगर हम
तरसते रहे रोशनी के लिए !
शामे-गम
दिमाग भोझिल
दिल में उभरे यादों के अक्स
कुछ ऐसे,
जो भुलाये न भूले
शाम की गहराई
जाने कब
डूब चुकी थी अँधेरे के समन्दर में,
और मै सोचता ही रह गया !
शामे-गम
पड़ गई नजर बरगद की शाख पर
चिड़ियों की चचाहाहट
दिन भर की भटकन के बाद
रैन बसेरे में आ कर
कितने खुश है ये पंछी
सूरज जब निकलेगा ,
उड़ जाएँगे,फिर से
जिन्दगी की तलाश में !
आज की यह शाम ढलेगी
जिन्दगी का एक और दिन
समेट कर ले जाएगी !
शामे-गम
एक सितारा टूटा आसमान से
जैसे किसी की किस्मत का टूटा हो तारा,
बैठे ही बैठे झपकी सी आ गई
हाथ में कलम और मेज पर कागज थे,
और शायद मै कवि बन गया था !
खुली जब आँख,
आसमान लाल था !
मै हैरान था !
अब उफक की लाली थी
शामे- गम का कहीं पता ना था !
Feb 24, 2010
चेहरा
देखकर ,
चन्द्रमा सा गोल चेहरा
चन्द्रमा सी कुटिल मुस्कान लिए,
दिल को अच्छा लगता है!
मन को भाता है!
जीवन की जटिलता को सवांरता है!
और
शायद
जीवन और समय की
जटिलता की कड़ियों के बीच
चांदनी छिटकने पर
मेरे इर्द गिर्द रह कर
होंठो पर मधुर मुस्कान लिए
चंचलता की ओट में
करता अटखेलियाँ
बिखेरता शीतल खशबू
चाहत की
फिजां में
ये
मासूम चेहरा
रहकर भी
दूर शितिज़ में
अहसास दिलाता रहेगा
सदा अपनेपन की!
चन्द्रमा सा गोल चेहरा
चन्द्रमा सी कुटिल मुस्कान लिए,
दिल को अच्छा लगता है!
मन को भाता है!
जीवन की जटिलता को सवांरता है!
और
शायद
जीवन और समय की
जटिलता की कड़ियों के बीच
चांदनी छिटकने पर
मेरे इर्द गिर्द रह कर
होंठो पर मधुर मुस्कान लिए
चंचलता की ओट में
करता अटखेलियाँ
बिखेरता शीतल खशबू
चाहत की
फिजां में
ये
मासूम चेहरा
रहकर भी
दूर शितिज़ में
अहसास दिलाता रहेगा
सदा अपनेपन की!
Feb 14, 2008
मासूम कलियाँ
सुबह की लालिमा को भी देखा
रात के सन्नाटे को भी देखा
धूप में अपने साए को भी साथ-साथ चलते देखा
छांव में अपने साए को भी विलुप्त होते देखा
सुख में अपनों को भी साथ-साथ देखा
दुख में अपनों को भी पराए होते देखा
जीवन में अच्छाइयों को भी अपना कर देखा
जीवन में बुराइयों को भी अपना कर देखा
जिन्दगी को हर हालात में भी जीकर देखा
जिन्दगी में ना चाहते हुए भी मौत का मजंर भी देखा
पर
इन सब के बीच
मानव की मानवता को भी खडंहर होते देखा
उस खंडहर में
उस मजंर को भी देखा
जो
आतंक के साए से भी ज्यादा भयानक था
गरीब में भुख के साए से भी ज्यादा दर्दनाक था
वो था
मासूम बच्चों के कंकालों का ढेर
रात के सन्नाटे को भी देखा
धूप में अपने साए को भी साथ-साथ चलते देखा
छांव में अपने साए को भी विलुप्त होते देखा
सुख में अपनों को भी साथ-साथ देखा
दुख में अपनों को भी पराए होते देखा
जीवन में अच्छाइयों को भी अपना कर देखा
जीवन में बुराइयों को भी अपना कर देखा
जिन्दगी को हर हालात में भी जीकर देखा
जिन्दगी में ना चाहते हुए भी मौत का मजंर भी देखा
पर
इन सब के बीच
मानव की मानवता को भी खडंहर होते देखा
उस खंडहर में
उस मजंर को भी देखा
जो
आतंक के साए से भी ज्यादा भयानक था
गरीब में भुख के साए से भी ज्यादा दर्दनाक था
वो था
मासूम बच्चों के कंकालों का ढेर
Oct 1, 2007
पथ निर्माण
बता रही है ए श्रमिक
तेरे श्रम की दास्तां
एक छोटी सी
बेजुबां खामोश चिमनी भी
तेरे ही खून का बनकर पसीना
जो झर रहा है
तेरी देह से झरना बनकर
निकल रहा है
मेरे मुख से वाष्प बनकर
फिर भी तू वचिंत है
जीवन की मधुर मुस्कान से
तन का दीया
मन की बाती बनाकर
प्रकाश फैला दिया कारखानों में
फिर भी,
तू है अन्धकार में !
देश का गौरव बढ रहा है
तेरे ही मेहनत के चमत्कार से
फिर भी तू वचिंत है
अपने ही अधिकारों से !
मानवता का संदेश
बापू का
मिलता नज़र आ रहा है
धूल में
हनन करके अधिकारों का
धनवानों ने
मजबूर कर दिया
अनशन,हड़ताल और तालाबंदी पर !
देखकर
इस विड़म्बना को
ख्याल आता है
मन में
अपने लक्ष्य के साथ-साथ
जब तक
आवागमन चलता रहे
सासों का
निर्माण करुँ
एक एसे पथ का
जो
मानवता के संदेश से
उजागर हो
और
चले इस पर जब
दो रंगी ये दुनिया
मिल मालिक हो या मजदूर
अमीर हो या गरीब
बाँट ले आपस में मिलकर
सुख-दुख की
लहरों का संगम !
तेरे श्रम की दास्तां
एक छोटी सी
बेजुबां खामोश चिमनी भी
तेरे ही खून का बनकर पसीना
जो झर रहा है
तेरी देह से झरना बनकर
निकल रहा है
मेरे मुख से वाष्प बनकर
फिर भी तू वचिंत है
जीवन की मधुर मुस्कान से
तन का दीया
मन की बाती बनाकर
प्रकाश फैला दिया कारखानों में
फिर भी,
तू है अन्धकार में !
देश का गौरव बढ रहा है
तेरे ही मेहनत के चमत्कार से
फिर भी तू वचिंत है
अपने ही अधिकारों से !
मानवता का संदेश
बापू का
मिलता नज़र आ रहा है
धूल में
हनन करके अधिकारों का
धनवानों ने
मजबूर कर दिया
अनशन,हड़ताल और तालाबंदी पर !
देखकर
इस विड़म्बना को
ख्याल आता है
मन में
अपने लक्ष्य के साथ-साथ
जब तक
आवागमन चलता रहे
सासों का
निर्माण करुँ
एक एसे पथ का
जो
मानवता के संदेश से
उजागर हो
और
चले इस पर जब
दो रंगी ये दुनिया
मिल मालिक हो या मजदूर
अमीर हो या गरीब
बाँट ले आपस में मिलकर
सुख-दुख की
लहरों का संगम !
Sep 21, 2007
भिक्षा संस्थान
एक दिन
बच्चा
स्कूल से घर आया
बोला पापा-पापा
फ़िर से भीख मांग रहे हैं
स्कूल वाले
सौ रुपये की
मैं सकपकाया सा
मैंने कहा भीख
समझा नहीं
बच्चा बोला
न्यूज़ पेपर के लिए
फ़िर बोला
जब देखो मांगते रहते हैं
कभी बीस-बीस स्लिप पकड़ा देते हैं
कारनीवल फेस्टीवल के लिए
कभी डायरी के नाम पर
कभी ग्रूप फोटो के नाम पर
मैं था असमजंस में
बच्चे के मूँह से निकले
शब्दों को सुनकर
मुझे लगने लगा
शिक्षा संस्थान
बन गए हैं
अब
भिक्षा संस्थान
और
बदल सा गया है
ढांचा
शिक्षा प्रणाली का
शिक्षा प्रणाली में
जो देगा
जितनी ज़्यादा भिक्षा
वो पाएगा
उतनी ही उच्च शिक्षा
शिक्षा और भिक्षा के बीच
देश के कर्णधार भी
बने हुए हैं ढाल
हर प्रकार की भिक्षा का कटोरा
हाथ में लिए
खोले बैठे हैं शिक्षा संस्थान
भिक्षा में चाहिए
हर साल
संस्थान की इमारत का
सालभर की क्रियाक्रम का खर्चा
अर्थात
डेवल्पमैन्ट फी भिक्षा
और
साथ-साथ
संस्थान में सालभर कदम रखने का खर्चा
अर्थात
एनुअल चार्ज भिक्षा
समझ से बहार
एक और चार्ज
हर तिमाही चाहिए
मिलाजुला चार्ज भिक्षा
इसी भिक्षा के पंजो से
कस देते हैं
कानून पर भी शिकंजा
बेसिक साधन देने के नाम पर
बिता देते हैं साल
रंग बदल-बदल कर
गिरगिट की तरह
और
कर रहे हैं भरपुर शोषण
आम आदमी का
शिक्षा के नाम पर
लगता है
शिक्षा से ज़्यादा
भिक्षा पर है ज़ोर !
बच्चा
स्कूल से घर आया
बोला पापा-पापा
फ़िर से भीख मांग रहे हैं
स्कूल वाले
सौ रुपये की
मैं सकपकाया सा
मैंने कहा भीख
समझा नहीं
बच्चा बोला
न्यूज़ पेपर के लिए
फ़िर बोला
जब देखो मांगते रहते हैं
कभी बीस-बीस स्लिप पकड़ा देते हैं
कारनीवल फेस्टीवल के लिए
कभी डायरी के नाम पर
कभी ग्रूप फोटो के नाम पर
मैं था असमजंस में
बच्चे के मूँह से निकले
शब्दों को सुनकर
मुझे लगने लगा
शिक्षा संस्थान
बन गए हैं
अब
भिक्षा संस्थान
और
बदल सा गया है
ढांचा
शिक्षा प्रणाली का
शिक्षा प्रणाली में
जो देगा
जितनी ज़्यादा भिक्षा
वो पाएगा
उतनी ही उच्च शिक्षा
शिक्षा और भिक्षा के बीच
देश के कर्णधार भी
बने हुए हैं ढाल
हर प्रकार की भिक्षा का कटोरा
हाथ में लिए
खोले बैठे हैं शिक्षा संस्थान
भिक्षा में चाहिए
हर साल
संस्थान की इमारत का
सालभर की क्रियाक्रम का खर्चा
अर्थात
डेवल्पमैन्ट फी भिक्षा
और
साथ-साथ
संस्थान में सालभर कदम रखने का खर्चा
अर्थात
एनुअल चार्ज भिक्षा
समझ से बहार
एक और चार्ज
हर तिमाही चाहिए
मिलाजुला चार्ज भिक्षा
इसी भिक्षा के पंजो से
कस देते हैं
कानून पर भी शिकंजा
बेसिक साधन देने के नाम पर
बिता देते हैं साल
रंग बदल-बदल कर
गिरगिट की तरह
और
कर रहे हैं भरपुर शोषण
आम आदमी का
शिक्षा के नाम पर
लगता है
शिक्षा से ज़्यादा
भिक्षा पर है ज़ोर !
Sep 20, 2007
गुलाम शब्द
बहुत समय बाद
हमारे एक मित्रगण मिले
हैलो-हैलो हूई
मैनें पूछा
आजकल आपका
बेटा क्या कर रहा है
बोले
सरकारी मुलाजिम है
मैनें कहा यु मीन
सर्विस
बोले हाँ
परन्तु तुम्हें पता है
सर्विस शब्द
आजकल
अपने आप से बहुत परेशान है
वो बोले कैसे
सूनो
बेचारे के एक-एक अक्षर को
जकड़ रखा है
टैक्स ने
मूझे तो उसका एक-एक अक्षर
टैक्स का गुलाम नज़र आता है
सर्विस शब्द के
'एस' अक्षर को
सर्विस टैक्स ने जकड़ रखा है
'इ' अक्षर को
एन्ट्रटेनमैन्ट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आर' अक्षर को
रोड टैक्स ने जकड़ रखा है
'वी' अक्षर को
वैट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आइ' अक्षर को
इन्कम टैक्स ने जकड़ रखा है
'सी' अक्षर को
कोर्रुप्शन टैक्स ने जकड़ रखा है
बिन खाते का
अनमोल रत्त्न
छुपा रुस्तम है ये
आखिर के
'इ' अक्षर को
एजुकेशन सैस टैक्स ने जकड़ रखा है
मित्रगण बोले
देखो ना
टैक्सों की है भरमार
फ़िर भी
हमें झेलनी पड़ती है
रोजाना की ज़रुरी सर्विसों की मार
जिसके हैं हम हकदार
बना रहता है हमेशा आकाल
ये कैसा दे डाला है
सरकार ने
अर्थव्यस्था को आकार
मेरी समझ से है बाहार
लगता है
सरकार लगी है
पैसा खींचने में
टैक्स के जरिए
करके खैंचु-खैंचु
और
हम ढो रहे हैं
इसका बोझा
गधे की तरह
करके ढेंचु-ढेंचु
हमारे एक मित्रगण मिले
हैलो-हैलो हूई
मैनें पूछा
आजकल आपका
बेटा क्या कर रहा है
बोले
सरकारी मुलाजिम है
मैनें कहा यु मीन
सर्विस
बोले हाँ
परन्तु तुम्हें पता है
सर्विस शब्द
आजकल
अपने आप से बहुत परेशान है
वो बोले कैसे
सूनो
बेचारे के एक-एक अक्षर को
जकड़ रखा है
टैक्स ने
मूझे तो उसका एक-एक अक्षर
टैक्स का गुलाम नज़र आता है
सर्विस शब्द के
'एस' अक्षर को
सर्विस टैक्स ने जकड़ रखा है
'इ' अक्षर को
एन्ट्रटेनमैन्ट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आर' अक्षर को
रोड टैक्स ने जकड़ रखा है
'वी' अक्षर को
वैट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आइ' अक्षर को
इन्कम टैक्स ने जकड़ रखा है
'सी' अक्षर को
कोर्रुप्शन टैक्स ने जकड़ रखा है
बिन खाते का
अनमोल रत्त्न
छुपा रुस्तम है ये
आखिर के
'इ' अक्षर को
एजुकेशन सैस टैक्स ने जकड़ रखा है
मित्रगण बोले
देखो ना
टैक्सों की है भरमार
फ़िर भी
हमें झेलनी पड़ती है
रोजाना की ज़रुरी सर्विसों की मार
जिसके हैं हम हकदार
बना रहता है हमेशा आकाल
ये कैसा दे डाला है
सरकार ने
अर्थव्यस्था को आकार
मेरी समझ से है बाहार
लगता है
सरकार लगी है
पैसा खींचने में
टैक्स के जरिए
करके खैंचु-खैंचु
और
हम ढो रहे हैं
इसका बोझा
गधे की तरह
करके ढेंचु-ढेंचु
Sep 11, 2007
उम्मीद
गिर -गिर कर सम्भलता हुआ
सम्भल -सम्भल कर गिरता हुआ
आशा और निराशा की
धुप -छावं में भटकता हुआ
उम्मीदों का काफिला संजोता हुआ
जीवन की डगर पर चलता हुआ
चला जा रहा था राही
मंजिल की तरफ बढता हुआ
चलते -चलते शाम ढले
जब नजर ना आया
निशा मंजिल का
तब बैठ गया
आशा और निराशा की
कशमकश से थक्कर
मंजिल की उम्मीद छोडकर
शाम ढले
पेड की शाख तले
शाम ढली
ढलकर अंधकार में बढ़ी
और
रात बढ़ी
जैसे -जैसे रात बढ़ी
राही की चिन्ता भी बढ़ी
विचारों का काफिला
बढ़ चला मस्तिष्क में
क्या सोचकर चला था
क्या हो रहा है
शायद
इसी को उम्मीदों का टूटना ..............
और
ले गया राही को
भावनाओं के सागर में
समझाता हुआ
परिभाषा भाग्य की
कुछ सोच ही रहा था राही
कि तभी
अंधेरे में कुछ टिमटिमाता दिखा
ध्यान से देखा
पाया जुगनू है
धीरे से आत्मा ने कहा
अब भी तू नही समझा
है जिस तरह
यह छोटा पतंगा
गहन अन्धकार में
है उसी तरह
प्रत्येक जीव की स्थिति संसार में
निराश ना हो
दीप उम्मीद का
जलाए हुए मन में
बढ़ चल
मंजिल की तरफ़
वरना ए राही
वीरान चमन बन कर
रह जायगा
यह तेरा
अनमोल जीवन !
सम्भल -सम्भल कर गिरता हुआ
आशा और निराशा की
धुप -छावं में भटकता हुआ
उम्मीदों का काफिला संजोता हुआ
जीवन की डगर पर चलता हुआ
चला जा रहा था राही
मंजिल की तरफ बढता हुआ
चलते -चलते शाम ढले
जब नजर ना आया
निशा मंजिल का
तब बैठ गया
आशा और निराशा की
कशमकश से थक्कर
मंजिल की उम्मीद छोडकर
शाम ढले
पेड की शाख तले
शाम ढली
ढलकर अंधकार में बढ़ी
और
रात बढ़ी
जैसे -जैसे रात बढ़ी
राही की चिन्ता भी बढ़ी
विचारों का काफिला
बढ़ चला मस्तिष्क में
क्या सोचकर चला था
क्या हो रहा है
शायद
इसी को उम्मीदों का टूटना ..............
और
ले गया राही को
भावनाओं के सागर में
समझाता हुआ
परिभाषा भाग्य की
कुछ सोच ही रहा था राही
कि तभी
अंधेरे में कुछ टिमटिमाता दिखा
ध्यान से देखा
पाया जुगनू है
धीरे से आत्मा ने कहा
अब भी तू नही समझा
है जिस तरह
यह छोटा पतंगा
गहन अन्धकार में
है उसी तरह
प्रत्येक जीव की स्थिति संसार में
निराश ना हो
दीप उम्मीद का
जलाए हुए मन में
बढ़ चल
मंजिल की तरफ़
वरना ए राही
वीरान चमन बन कर
रह जायगा
यह तेरा
अनमोल जीवन !
Sep 10, 2007
Aug 21, 2007
महल
दिन -प्रतिदिन
उमंगों से बनी नाव में
पतवार लिए सपनों की
विचारों के सागर में
बिखरी हुई जिन्दगी की ,
तह लगाकर
समेटे हुए
डूबता उभरता
निरंतर चल रहा हूँ
इस उम्मीद पर
कि
कभी तो,उमंगो से भरी
सपनों की लहर
जो मेरे विचारों के अनुकूल होगी
मेरी पतवार से टकराएगी
तब मैं
उस लहर के स्वागत में
उम्मीदों के दीप जलाकर
पथ मे पलकों को बिछाकर
ख़ुशी से छलकते हुए आंसुओं को
मोती बनाकर
उसको बिठा लूँगा,
नाव में
पर कब तक ,
जब तक मैं
विचारों की नींव से
उमंगों की सीमेंट से
सपनों की सजावट से
सागर से भी गहरा
मिलाजुला ,
महल ना बना लूँ ।
उमंगों से बनी नाव में
पतवार लिए सपनों की
विचारों के सागर में
बिखरी हुई जिन्दगी की ,
तह लगाकर
समेटे हुए
डूबता उभरता
निरंतर चल रहा हूँ
इस उम्मीद पर
कि
कभी तो,उमंगो से भरी
सपनों की लहर
जो मेरे विचारों के अनुकूल होगी
मेरी पतवार से टकराएगी
तब मैं
उस लहर के स्वागत में
उम्मीदों के दीप जलाकर
पथ मे पलकों को बिछाकर
ख़ुशी से छलकते हुए आंसुओं को
मोती बनाकर
उसको बिठा लूँगा,
नाव में
पर कब तक ,
जब तक मैं
विचारों की नींव से
उमंगों की सीमेंट से
सपनों की सजावट से
सागर से भी गहरा
मिलाजुला ,
महल ना बना लूँ ।
Aug 18, 2007
उपयोग
दिमाग के किसी कोने मे
उभरता हुआ विचार
और कलम उतरी जो
लिखने को कागज़ पर
शब्द टूट-टूट कर बिखरने लगे,
बिखरते शब्दों का संतुलन बनाने में
सुबह से शाम होने लगी
इसी उलझन में,
संतुलन बिगाड़ने लगा दिमाग का,
कागज़ और कलम के बीच
होने लगा द्वंद
फिर
कागज़ , कागज़ ना रहा
कलम, कलम ना रही
ग़ुस्से में, जब
पटक दिया मेज पर कलम को
लगा, मानो
कलम से निकलते स्वर
मेज से टकरा कर, कह रहे हों,
पहले शब्दों का संग्रह करो
फिर मेरा उपयोग करो।
उभरता हुआ विचार
और कलम उतरी जो
लिखने को कागज़ पर
शब्द टूट-टूट कर बिखरने लगे,
बिखरते शब्दों का संतुलन बनाने में
सुबह से शाम होने लगी
इसी उलझन में,
संतुलन बिगाड़ने लगा दिमाग का,
कागज़ और कलम के बीच
होने लगा द्वंद
फिर
कागज़ , कागज़ ना रहा
कलम, कलम ना रही
ग़ुस्से में, जब
पटक दिया मेज पर कलम को
लगा, मानो
कलम से निकलते स्वर
मेज से टकरा कर, कह रहे हों,
पहले शब्दों का संग्रह करो
फिर मेरा उपयोग करो।
अक्ष
इस वैज्ञानिक युग
में आज का मानव
भाग रहा है;
भागता ही जा रहा है,
भागते-भागते
नंगे पाँव ही
हिमालय के शिखर पर
चढ़ जाना चाहता है
और
आसमाँ के बहुमूल्य रतन
चांद, सूरज व तारों को
समेट कर
एक ही मुट्ठी में
तारों से
घर जगमगाना चाहता है।
चांद की शीतलता से
अपने भटकते मन को
ठंडक पहुँचाना चाहता है,
सूरज को अलादीन के जिन्न की तरह
अपना सेवक बनाकर
दूसरो को भस्म कर देना चाहता है
और शायद वह
तब तक भागता ही रहेगा
जब तक आसमां में
चांद को अपना वाहन बनाकर
अपनी आंखों के पैमाने में
पृथ्वी की गति को क़ैद कर
उसकी धुरी का
अक्ष ना देख ले।
में आज का मानव
भाग रहा है;
भागता ही जा रहा है,
भागते-भागते
नंगे पाँव ही
हिमालय के शिखर पर
चढ़ जाना चाहता है
और
आसमाँ के बहुमूल्य रतन
चांद, सूरज व तारों को
समेट कर
एक ही मुट्ठी में
तारों से
घर जगमगाना चाहता है।
चांद की शीतलता से
अपने भटकते मन को
ठंडक पहुँचाना चाहता है,
सूरज को अलादीन के जिन्न की तरह
अपना सेवक बनाकर
दूसरो को भस्म कर देना चाहता है
और शायद वह
तब तक भागता ही रहेगा
जब तक आसमां में
चांद को अपना वाहन बनाकर
अपनी आंखों के पैमाने में
पृथ्वी की गति को क़ैद कर
उसकी धुरी का
अक्ष ना देख ले।
Aug 17, 2007
प्रतिबिम्ब
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