Aug 22, 2011

अन्ना अनशन

http://www.lifepositive.com/mind/ethics-and-values/grfx/anna.jpg

अन्ना
का
अनशन
भ्रष्टाचार के
खिलाफ
खिला रहा है
दिलों में
लोगों के
उम्मीदों का
गुलशन
और
बढ़ा रहा है
भ्रष्ट
नेताओं
का
टेंशन !

Jun 7, 2010

सहारा


मन
और
तन
दोनो से
करता रहा
जतन
अपने बहुमुलिए
रतनों (पुत्रों)
को
संजोकर
रखने का
पर
आज की
इस
कलयुगी
हवा ने
बिखेर दिया
सूखे
पतों की तरह
बहुमुलिए
रतनों को
और
छीन लिया
सहारा
बुढ़ापे का !

May 24, 2010

जीवन










धुप -छांव
फूल-कांटे
सुख -दुःख
हँसना-रोना
खोना -पाना
इन
शब्दों में
ही
छिपी है
जीवन के
सफ़र की
कहानी !

May 13, 2010

भविष्य


लगता है
इस देश का
भविष्य
रह गया है
सिमट कर
भ्रष्टचार
महंगाई
आरक्षण
और
आतंक
के
दायरे में
भरष्टाचार ने
थाम रखा है
दामन
महंगाई का
और
आरक्षण ने
पहन रखा है
चोला
आतंकवाद का !

May 12, 2010

इरादा


देखकर
इन्सान की
फितरत को
धरा
हो चुकी है
धराशायी
धरती का
सीना चीरकर
ज्वालामुखी भी
कर रहा है
प्रकट
रोष अपना
हिमालय भी
पिघलकर
अपने अस्तित्व
का
नामों निशां
मिटाने पर
है अमादा
क्या है
इन्सानी फितरत
का
इरादा ?

May 10, 2010

इन्तजार


अँधेरे को इन्तजार है
सुबह का
साहिल को इन्तजार है
लहरों का
शमा को इन्तजार है
परवाने का
कली को इन्तजार है
खिलने का
फूलों को इन्तजार है
भँवरे का
बादलों में छिपी
बूंदों को इन्तजार है
बरसने का
पथराई आँखों को इन्तजार है
किसी के आने का
और
जीवन को इन्तजार है
उज्जवल भविष्य का !

May 7, 2010

जल


जल ही
जीवन है
जल ही
जलवायु है
जलवायु में ही
जीवन का
मोती
छिपा है !

Apr 21, 2010

बीते हुए पल


गीत बहुत से गाए है
शायद
हर साज पर गाए है
पर
सुने है जिस दिन से
गम के नगमे
गीत फिर मुझसे
किसी भी साज पर
गाया ना गया !
वफ़ा को
नाम ना दिया होता
बेवफा का
इस बेरहम दुनिया ने
अगर
चीज ना होती
मज़बूरी नाम की !

वक्त्त की हर लहर पर
यादों की मोजों का
पहरा होगा
करोगे याद तो
लहरों की रवानगी में
बीते हुए पलों का
कारवां ठहरा होगा !

Apr 20, 2010

ज्वाब


पत्र आया है तुम्हारा
चल कर
कबूतर की चाल
लिखा है तुमने
हसरतों का तूफान हो
कहीं ना थमने का नाम हो
जोशे दरिया में इस कदर है
सनम
कहीं ना बेखबर हो
पर
सुन लो
ज्वाब हमारा भी
मिलने की आशाओं का
तूफान हो
कहीं ना मिलन का
नाम हो
नफरतों का जोश
दिल के दरिया में
इस कदर है

माटी के पुतले
कहीं ना
मुलाकात हो !

Apr 16, 2010

मंजिल


मंजिल तक पहुँचने के लिए
गिर-गिर कर
सम्भला हूँ अक्सर
सम्भल-सम्भल के
गिरा हूँ अक्सर
पता नही
आखों के सामने
गुजर गए
कितने ही काफिले
इस रहगुजर से
पर
मैं शायद
नही पहुँच सका हूँ
उस रहगुजर पर
अभी तक
जहाँ से
नजर आ सके
निशां
मंजिल का !

Apr 15, 2010

कैट


इक्कीसिवी शताब्दी
के
धरातल पर
कदम रखते हुए
सभ्यता
और
संस्कृति
का
चीरहरण
करता हुआ
बेटा
बाप से बोला

डैड
सी
माई
विदेशी कैट
बाप बोला
विदेशी कैट
बेटा
हाँ-हाँ
माई काइट
माई साइट
माई नाईट
बाप
आर यु मैड बेटा
नो
आई एम ग्लैड !

Apr 13, 2010

चेहरा



हँसतें-हँसतें
रोने का
अंदाजे बयां भी देखा
रोते-रोते
हँसने का
अंदाजे बयां भी देखा
और
इन दोनों के बीच
असमंजस से घिरा
वो
मंजर भी देखा
उस चेहरे का
जो
खुद-खुद पे
संवर जाता है
अपनी ही
हंसी के दायरे में
खुद-खुद पे
भिखर जाता है
अपने ही
आंसुओं के पैमाने में
सच
क्या कहूँ
इस नक्शे कदम का
जिसका अक्स
उभरता है
उस चेहरे पे
जो
दिन-प्रतिदिन
ओर भी
प्यारा-प्यारा सा
लगता है !

Apr 12, 2010

गुडिया


गुडिया

गुडिया
बड़ी होकर
बनेगी तू दुल्हनिया
आंसू बहाएगी तब संग
बचपन की सेहलिया
चेहरे पर जब
पड़ेंगी झुरियां
हो जाएगी
तब
तू बुढिया
आकर तंग
बुढ़ापे से
जाएगी मर
खाकर जहर की पुडिया
रोयेंगे फिर
सिर्फ
गम में तेरे
पोते पोतियाँ
अंत में
ले जाकर
शमशान में
कर डालेंगे
क्रिया-क्रम
तेरा !

Apr 8, 2010

जीवन का मोल


आजकल
खेल के
मैदान में
शराब
और
शवाब
का भी
चल रहा है
खूब खेल
टिकटों की
सेल में भी
धडल्ले से चल रहा है
ब्लैकमेल
नेता और अभिनेता भी
बढ-चढ़कर
प्ले कर रहे है
अपना रोल
तोल-तोल के
बोल-बोल के
खिलाडियों का
लगा रहे है
करोडों का मोल
इसी में इनको
नज़र
आ रहा है
अपने
अनमोल जीवन का
मोल
खेलों के
नाम पर
फल-फूल रहा है
ये
अंधेरगर्दी का
खेल
जिस देश में
अनगिनत लोग़
भूख और गरीबी की
मार रहे है
झेल
बेचकर
खून अपना
कुछ पल जीकर
देख रहे है
जिन्दगी का
खेल !



Apr 7, 2010

फंडा


आज़ादी के बाद
विरासत में
अंग्रजों से मिली
वसीयत में
अंग्रेजी
और
डीवाइड एंड रूल
का
फंडा
खूब पनप रहा है
इस देश
के
नेताओं के
खादी और खादर
तले !

Apr 6, 2010

रिश्ते


पैसे

पैसे
तुने
अपना लिया है
रूप ये कैसा
तेरी खनक में
दब के रह गई है
माँ-बाप
भाई-बहन
के
रिश्तों की
चीख
और
पुकार !

Apr 5, 2010

आंगन


अन्धकार को
चीरती हुई
जब सुबह
सूर्य की
पहली किरण के साथ
मन के
आंगन में उतरती है
तब
मन के आंगन में
विचारों के
नये अंकुर फूटने लगते है
सपनों की
कलियाँ खिलने लगती है
प्रतिदिन
कुछ ऐसी ही
प्रतिक्रिया अनुभव होती है
परन्तु
साँझ होते-होते
सूर्य की
अन्तिम किरण के साथ-साथ
अंकुरों का
अपना कोई रूप नही रह जाता
सपनों की
कलियाँ
टूट-टूट कर
भिखरने लगती है
और
मन के आंगन के
गहन अन्धकार में
निराशा के
तारे
टिमटिमाने लगते है !

Apr 1, 2010

ब्रांड


दंगा
मर्डर
घोटाला
हत्याकांड

अनुशासनहीनता
बन के
रह गए है
देश के
नेताओं के
ब्रांड !

Mar 31, 2010

अलविदा


वो आए तो थे
महफ़िल में
मगर
कुछ उदास-उदास से
कुछ सिमटे-सिमटे से
फिर
पुकार कर दूर से ही
कुछ सोचकर
कहकर अलविदा
चल दिए
और
दे गए तनहाइयों में
बेबसी के
टूटे हुए पत्थरों से
बना
यादों का खंडहर !

Mar 30, 2010

महफ़िल


यारों की
इस महफ़िल में
हर कोई
खुश नजर आता है
हर एक की
तक़दीर का सितारा
चमकता हुआ
नजर आता है
एक हम है
सितारा तो दूर
जिन्दगी से भी
बेजार नजर आते है
भूले से काश
कोई सितारा
टूट क़र
हमारे दामन में भी
आ गिरता !

Mar 29, 2010

घोटसाला


जिसने किया है
बड़े से बड़ा
घोटाले पे घोटाला
उसका बड़ा है
इस दुनिया में
बोल बाला
साथ-साथ
साफ सुथरी
छविवाला
हाथी
मतवाला
बन सकता है
देश के
नेताओं का
रखवाला
हमप्याला
शायद
साला भी

Mar 26, 2010

ऐ दोस्त


क्यों
खफा -खफा सा रहता है
क्यों
बुझा-बुझा सा रहता है

दोस्त
जरा सर को झुकाकर
नजरों को
दिल के आइने पे डाल
हमारा ही न मिटने वाला
अमिट प्रतिबिम्ब दिखाई देगा
और
फिर नम आखों से
झरते असूंओं के मोतिओं में
ओस की
बूंद सा नजर आऊंगा

दोस्त !

Mar 25, 2010

कैसे करूँ सिंगार


तबले की
ताल पर
मंजिरे की
आवाज़ पर
घुंघरूओं की
झनकार पर
होठों की
चंचल मुस्कान पर
रोम-रोम में
सिंगार का भाव लिए
सिख रही है
गोरी
सिंगार रस
पैरों की
थिरकन पर !

Mar 10, 2010

वसीयत


जब भी
काफिला
आंसुओं का
गुजरा है
कागज के पथ पर
बदल गया
हर एक कतरा
आंसू का
कुछ इस कदर
अल्फाजों में
कि
दे सकता है
नाम
कोई भी
कुछ भी
पर
हकीकत यह है कि
वसीयत है
मेरे अरमानों की !

Mar 9, 2010

अभिलाषा


क्या बताऊँ यार
क्यों
अक्सर खो जाता हूँ
मैं
गुम सुम सा होकर
मुख पे
शून्य का भाव लिए
अतीत में !
काफी अरसे से
कुछ कर
गुजरने की तमन्ना है
दिल में
कुछ कर गुजरना है
मुझे
अपने आप को
हिमालय के शिखर तक
ऊँचा उठाने के लिए
और
अपने नाम के शब्दों को
सुबह की
सूर्य की
किरणों से
जोड़ने के लिए
कभी -कभी
जब आता है ध्यान
कम है जिन्दगी
सफ़र है लम्बा
अब
कुछ कर गुजरना ही चाहिए
मुझको
पर
भटक जाता हूँ अक्सर
चलता हुआ
जीवन की
इस लम्बी सी
टेढ़ी मेढ़ी डगर पर
भटकने के साथ -साथ
अटक भी जाता हूँ
जब कभी
मजबूर हो जाता हूँ
फिर
मुख मोड़ कर्तव्य से
खो जाता हूँ
सपनों की दुनिया में
तब ओर भी
मायूस हो जाता हूँ
जब
सपनों के शहर में
खोकर भी
पाता हूँ
अपनी तमन्ना की परछाई का
अक्स
खंडहर का रूप लिए !

Mar 5, 2010

हलचल


शोर मच गया
शोर मच गया
हर दिशां आसमां में
चाँद खो गया
चाँद खो गया
असमंजस में पड़ गया
छोटे से बड़ा
हर एक ग्रह
कहाँ गया
प्यारा सलौना सा
चाँद
आसमां से धरती तक
तारों ने बिछा दिया
अपना जाल
लग रहा है
सजी है आज धरती
एक
दुल्हन की तरह
और
ढूंढ़ रहे है
टिमटिमाते हुए
प्यारे
चाँद को
ढूंढते-ढूंढते
थक कर
जब बुझने से लगे
तभी
समुन्द्र की गहराई में से
लहरों की तरंगो पे
अठखेलिया करता
निकला चाँद
जिसमे
अक्सर चाँद
देखता था
अपने अक्स को
मुस्कराता हुआ बोला
निराश ना हो
ऐ मेरे प्यारे दोस्तों
ओर ना हो जाऊं
दूषित मैं
कुछ क्षण के लिए
गया था छुप
आते देख
अपनी तरफ
एक ओर राकेट को
और
सोचकर
गतिविधिया महाशक्तियों की
छेदकर
मानव की मानवता को
पर्यावरण की चादर को
कर दिया धराशाही
धरती को
नित्य
मिसाइल ओर परमाणू
परिक्षण से
लेकिन
मानो कह रहे हों
अब बारी तुम्हारी है
अ चन्द्रमा
परन्तु
मै तो
समय और सृष्टि की
नियम की कड़ियों से
जुडा हूँ
मुझे तो
हर हाल में
दूषित वातावरण में भी
ब्रहमाण्ड में रहकर
निरन्तर
सृष्टि के लिए
घूमते ही जाना है
अपनी ही धुरी पर
स्थिर गति से
घूमते ही जाना है !

Mar 4, 2010

चमगादड़ व नेता


दिल्ली का
व़ी आई पी एरिया
जहाँ पर है
हरे भरे घने बड़े-बड़े
पेड़ो का घेरा
वहां पर है
देश के भावी
नेताओ का डेरा
साँझ होते होते
घने पेड़ो पर
लग जाता है
बडे-बडे
चमगादड़ो का मेला
देखिये कुदरत का खेल
एक ही जगह पर है
दोनों का मेल
है दोनों में कितना भाईचारा
काम भी एक है
खून पीना
चमगादड़ पीते है
भोले भाले जानवरों व पशुओं का खून
भावी नेता पीते है
देश की
भोली भली जनता का खून !

Mar 3, 2010

खिलौना


तेरी दास्तान समझ न सका कोई
बचपन से मृत्यु के अन्तिम सफ़र तक
ए जिन्दगी !
कितनी ही परिभाषाएँ बना डाली,
कवियों,महापुरषों ने तुझ पर
पर
तू अपने में ही
मस्त लहराती
तय करती रहती है
सुबह शाम
अपना सफ़र
इस कशमकश में
कोई गम से बन गया शराबी
कोई पागल, कोई कवि, कोई शायर
शायद
कोई-कोई देखकर रंग तेरे
तोड़ गया दम
आधे सफ़र में
दूर खड़ी हंसती है तू
बेबसी पर इन्सान की
किसी-किसी का बना डाला जीवन
जानवर से भी बदतर
क्यों
मेरी परिकल्पना का रूप समझ रहा है
शायद
बनाई है
कितनी रंग बिरंगी खेलने को वस्तुएँ
इन्सान के लिए
पर
अपने लिए खेलने को
सिर्फ इन्सान !

Feb 25, 2010

वादा


जिन्दगी मे किसी से,
किया वादा
निभा सकूँ, या ना निभा सकूँ
पर तुझ से तो वादा निभाना ही पड़ेगा
ए मौत !

जजबात मे बहकर
कभी तुझ से भी, वादा किया था मैंने
तू सौं शक्लो मे लहराती फिरती है
पहले
जब कभी ध्यान आता था
की तुझ से वादा निभाना है
तो तेरी
हर शक्ल की हर लहर से ही
कांप उठती थी जिन्दगी
पर
आज ना जाने क्यों
तुझे अपनाना चाहती है जिन्दगी
तेरी लहरों में, लुप्त हो जाना चाहती है जिन्दगी
तेरी आगोश में सर रखकर, सो जाना चाहती है जिन्दगी
अपनी आखरी शाम
तेरे दामन में समेट देना चाहती है जिन्दगी
तेरे से वादा निभाने की, मोहर बन कर रह गई है जिन्दगी
तेरे नाम से ही थोडा बहुत
शाम ढ़लने का मंजर, ख़ूबसूरत सा लगता है
इस जिन्दगी में
तेरे ही दम से बहार रह गई है
इस जिन्दगी में
बस तेरे से ही
वादा निभाने का इंतजार रह गया है
इस जिन्दगी में
लिबास ओड़कर काली स्याही का
आ भी जा
जिन्दगी की मोहर पर लिखे
अपने वादे का
वादा निभा भी जा !

शामे-गम


शामे-गम
अँधेरे के साए घिरने लगे ,
दिल का चिराग रोशन हुआ
दिमाग में कोंधी बिजली,
सादगी चाहिए
गुजारने को जिन्दगी,
उभरा चाँद उफक पर, तारे चमके,
मगर हम
तरसते रहे रोशनी के लिए !

शामे-गम
दिमाग भोझिल
दिल में उभरे यादों के अक्स
कुछ ऐसे,
जो भुलाये न भूले
शाम की गहराई
जाने कब
डूब चुकी थी अँधेरे के समन्दर में,
और मै सोचता ही रह गया !

शामे-गम
पड़ गई नजर बरगद की शाख पर
चिड़ियों की चचाहाहट
दिन भर की भटकन के बाद
रैन बसेरे में आ कर
कितने खुश है ये पंछी
सूरज जब निकलेगा ,
उड़ जाएँगे,फिर से
जिन्दगी की तलाश में !

आज की यह शाम ढलेगी
जिन्दगी का एक और दिन
समेट कर ले जाएगी !

शामे-गम
एक सितारा टूटा आसमान से
जैसे किसी की किस्मत का टूटा हो तारा,
बैठे ही बैठे झपकी सी आ गई
हाथ में कलम और मेज पर कागज थे,
और शायद मै कवि बन गया था !

खुली जब आँख,
आसमान लाल था !
मै हैरान था !
अब उफक की लाली थी
शामे- गम का कहीं पता ना था !

Feb 24, 2010

चेहरा


देखकर ,
चन्द्रमा सा गोल चेहरा
चन्द्रमा सी कुटिल मुस्कान लिए,
दिल को अच्छा लगता है!
मन को भाता है!
जीवन की जटिलता को सवांरता है!
और
शायद
जीवन और समय की
जटिलता की कड़ियों के बीच
चांदनी छिटकने पर
मेरे इर्द गिर्द रह कर
होंठो पर मधुर मुस्कान लिए
चंचलता की ओट में
करता अटखेलियाँ
बिखेरता शीतल खशबू
चाहत की
फिजां में
ये
मासूम चेहरा
रहकर भी
दूर शितिज़ में
अहसास दिलाता रहेगा
सदा अपनेपन की!

Feb 14, 2008

मासूम कलियाँ


सुबह की लालिमा को भी देखा
रात के सन्नाटे को भी देखा
धूप में अपने साए को भी साथ-साथ चलते देखा
छांव में अपने साए को भी विलुप्त होते देखा
सुख में अपनों को भी साथ-साथ देखा
दुख में अपनों को भी पराए होते देखा
जीवन में अच्छाइयों को भी अपना कर देखा
जीवन में बुराइयों को भी अपना कर देखा
जिन्दगी को हर हालात में भी जीकर देखा
जिन्दगी में ना चाहते हुए भी मौत का मजंर भी देखा
पर
इन सब के बीच
मानव की मानवता को भी खडंहर होते देखा
उस खंडहर में
उस मजंर को भी देखा
जो
आतंक के साए से भी ज्यादा भयानक था
गरीब में भुख के साए से भी ज्यादा दर्दनाक था
वो था
मासूम बच्चों के कंकालों का ढेर

Oct 1, 2007

पथ निर्माण


बता रही है ए श्रमिक
तेरे श्रम की दास्तां
एक छोटी सी
बेजुबां खामोश चिमनी भी
तेरे ही खून का बनकर पसीना
जो झर रहा है
तेरी देह से झरना बनकर
निकल रहा है
मेरे मुख से वाष्प बनकर
फिर भी तू वचिंत है
जीवन की मधुर मुस्कान से
तन का दीया
मन की बाती बनाकर
प्रकाश फैला दिया कारखानों में
फिर भी,
तू है अन्धकार में !
देश का गौरव बढ रहा है
तेरे ही मेहनत के चमत्कार से
फिर भी तू वचिंत है
अपने ही अधिकारों से !
मानवता का संदेश
बापू का
मिलता नज़र आ रहा है
धूल में
हनन करके अधिकारों का
धनवानों ने
मजबूर कर दिया
अनशन,हड़ताल और तालाबंदी पर !
देखकर
इस विड़म्बना को
ख्याल आता है
मन में
अपने लक्ष्य के साथ-साथ
जब तक
आवागमन चलता रहे
सासों का
निर्माण करुँ
एक एसे पथ का
जो
मानवता के संदेश से
उजागर हो
और
चले इस पर जब
दो रंगी ये दुनिया
मिल मालिक हो या मजदूर
अमीर हो या गरीब
बाँट ले आपस में मिलकर
सुख-दुख की
लहरों का संगम !

Sep 21, 2007

भिक्षा संस्थान


एक दिन
बच्चा
स्कूल से घर आया
बोला पापा-पापा
फ़िर से भीख मांग रहे हैं
स्कूल वाले
सौ रुपये की
मैं सकपकाया सा
मैंने कहा भीख
समझा नहीं
बच्चा बोला
न्यूज़ पेपर के लिए
फ़िर बोला
जब देखो मांगते रहते हैं
कभी बीस-बीस स्लिप पकड़ा देते हैं
कारनीवल फेस्टीवल के लिए
कभी डायरी के नाम पर
कभी ग्रूप फोटो के नाम पर
मैं था असमजंस में
बच्चे के मूँह से निकले
शब्दों को सुनकर
मुझे लगने लगा
शिक्षा संस्थान
बन गए हैं
अब
भिक्षा संस्थान
और
बदल सा गया है
ढांचा
शिक्षा प्रणाली का
शिक्षा प्रणाली में
जो देगा
जितनी ज़्यादा भिक्षा
वो पाएगा
उतनी ही उच्च शिक्षा
शिक्षा और भिक्षा के बीच
देश के कर्णधार भी
बने हुए हैं ढाल
हर प्रकार की भिक्षा का कटोरा
हाथ में लिए
खोले बैठे हैं शिक्षा संस्थान
भिक्षा में चाहिए
हर साल
संस्थान की इमारत का
सालभर की क्रियाक्रम का खर्चा
अर्थात
डेवल्पमैन्ट फी भिक्षा
और
साथ-साथ
संस्थान में सालभर कदम रखने का खर्चा
अर्थात
एनुअल चार्ज भिक्षा
समझ से बहार
एक और चार्ज
हर तिमाही चाहिए
मिलाजुला चार्ज भिक्षा
इसी भिक्षा के पंजो से
कस देते हैं
कानून पर भी शिकंजा
बेसिक साधन देने के नाम पर
बिता देते हैं साल
रंग बदल-बदल कर
गिरगिट की तरह
और
कर रहे हैं भरपुर शोषण
आम आदमी का
शिक्षा के नाम पर
लगता है
शिक्षा से ज़्यादा
भिक्षा पर है ज़ोर !

Sep 20, 2007

गुलाम शब्द


बहुत समय बाद
हमारे एक मित्रगण मिले
हैलो-हैलो हूई
मैनें पूछा
आजकल आपका
बेटा क्या कर रहा है
बोले
सरकारी मुलाजिम है
मैनें कहा यु मीन
सर्विस
बोले हाँ
परन्तु तुम्हें पता है
सर्विस शब्द
आजकल
अपने आप से बहुत परेशान है
वो बोले कैसे
सूनो
बेचारे के एक-एक अक्षर को
जकड़ रखा है
टैक्स ने
मूझे तो उसका एक-एक अक्षर
टैक्स का गुलाम नज़र आता है
सर्विस शब्द के
'एस' अक्षर को
सर्विस टैक्स ने जकड़ रखा है
'इ' अक्षर को
एन्ट्रटेनमैन्ट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आर' अक्षर को
रोड टैक्स ने जकड़ रखा है
'वी' अक्षर को
वैट टैक्स ने जकड़ रखा है
'आइ' अक्षर को
इन्कम टैक्स ने जकड़ रखा है
'सी' अक्षर को
कोर्रुप्शन टैक्स ने जकड़ रखा है
बिन खाते का
अनमोल रत्त्न
छुपा रुस्तम है ये
आखिर के
'इ' अक्षर को
एजुकेशन सैस टैक्स ने जकड़ रखा है
मित्रगण बोले
देखो ना
टैक्सों की है भरमार
फ़िर भी
हमें झेलनी पड़ती है
रोजाना की ज़रुरी सर्विसों की मार
जिसके हैं हम हकदार
बना रहता है हमेशा आकाल
ये कैसा दे डाला है
सरकार ने
अर्थव्यस्था को आकार
मेरी समझ से है बाहार
लगता है
सरकार लगी है
पैसा खींचने में
टैक्स के जरिए
करके खैंचु-खैंचु
और
हम ढो रहे हैं
इसका बोझा
गधे की तरह
करके ढेंचु-ढेंचु

Sep 11, 2007

उम्मीद


गिर -गिर कर सम्भलता हुआ
सम्भल -सम्भल कर गिरता हुआ
आशा और निराशा की
धुप -छावं में भटकता हुआ
उम्मीदों का काफिला संजोता हुआ
जीवन की डगर पर चलता हुआ
चला जा रहा था राही
मंजिल की तरफ बढता हुआ
चलते -चलते शाम ढले
जब नजर ना आया
निशा मंजिल का
तब बैठ गया
आशा और निराशा की
कशमकश से थक्कर
मंजिल की उम्मीद छोडकर
शाम ढले
पेड की शाख तले
शाम ढली
ढलकर अंधकार में बढ़ी
और
रात बढ़ी
जैसे -जैसे रात बढ़ी
राही की चिन्ता भी बढ़ी
विचारों का काफिला
बढ़ चला मस्तिष्क में
क्या सोचकर चला था
क्या हो रहा है
शायद
इसी को उम्मीदों का टूटना ..............
और
ले गया राही को
भावनाओं के सागर में
समझाता हुआ
परिभाषा भाग्य की
कुछ सोच ही रहा था राही
कि तभी
अंधेरे में कुछ टिमटिमाता दिखा
ध्यान से देखा
पाया जुगनू है
धीरे से आत्मा ने कहा
अब भी तू नही समझा
है जिस तरह
यह छोटा पतंगा
गहन अन्धकार में
है उसी तरह
प्रत्येक जीव की स्थिति संसार में
निराश ना हो
दीप उम्मीद का
जलाए हुए मन में
बढ़ चल
मंजिल की तरफ़
वरना ए राही
वीरान चमन बन कर
रह जायगा
यह तेरा
अनमोल जीवन !

Sep 10, 2007

बेबसी



पेड़ पर लटके हुए
अनेक आमों में से
तोड़ डाला
एक छोटा सा
प्यारा सा आम
मारकर
एक बड़ा सा पत्थर
उछलकर
जा अटका
वह आम
अनेक लताओं में से
पेड़ की एक छोटी
स्नेह सी लता पर
देखकर लगा मानो
स्नेह सी लता का
मुखड़ा बन
वह आम
अनेक लताओं के
झूरमूट से झांककर
मेरी बेबसी पर
हँस रहा हो !

Aug 21, 2007

महल


दिन -प्रतिदिन
उमंगों से बनी नाव में
पतवार लिए सपनों की
विचारों के सागर में
बिखरी हुई जिन्दगी की ,
तह लगाकर
समेटे हुए
डूबता उभरता
निरंतर चल रहा हूँ
इस उम्मीद पर
कि
कभी तो,उमंगो से भरी
सपनों की लहर
जो मेरे विचारों के अनुकूल होगी
मेरी पतवार से टकराएगी
तब मैं
उस लहर के स्वागत में
उम्मीदों के दीप जलाकर
पथ मे पलकों को बिछाकर
ख़ुशी से छलकते हुए आंसुओं को
मोती बनाकर
उसको बिठा लूँगा,
नाव में
पर कब तक ,
जब तक मैं
विचारों की नींव से
उमंगों की सीमेंट से
सपनों की सजावट से
सागर से भी गहरा
मिलाजुला ,
महल ना बना लूँ ।

Aug 18, 2007

उपयोग


दिमाग के किसी कोने मे
उभरता हुआ विचार
और कलम उतरी जो
लिखने को कागज़ पर
शब्द टूट-टूट कर बिखरने लगे,
बिखरते शब्दों का संतुलन बनाने में
सुबह से शाम होने लगी
इसी उलझन में,
संतुलन बिगाड़ने लगा दिमाग का,
कागज़ और कलम के बीच
होने लगा द्वंद
फिर
कागज़ , कागज़ ना रहा
कलम, कलम ना रही
ग़ुस्से में, जब
पटक दिया मेज पर कलम को
लगा, मानो
कलम से निकलते स्वर
मेज से टकरा कर, कह रहे हों,
पहले शब्दों का संग्रह करो
फिर मेरा उपयोग करो।

अक्ष


इस वैज्ञानिक युग
में आज का मानव
भाग रहा है;
भागता ही जा रहा है,
भागते-भागते
नंगे पाँव ही
हिमालय के शिखर पर
चढ़ जाना चाहता है
और
आसमाँ के बहुमूल्य रतन
चांद, सूरज व तारों को
समेट कर
एक ही मुट्ठी में
तारों से
घर जगमगाना चाहता है।
चांद की शीतलता से
अपने भटकते मन को
ठंडक पहुँचाना चाहता है,
सूरज को अलादीन के जिन्न की तरह
अपना सेवक बनाकर
दूसरो को भस्म कर देना चाहता है
और शायद वह
तब तक भागता ही रहेगा
जब तक आसमां में
चांद को अपना वाहन बनाकर
अपनी आंखों के पैमाने में
पृथ्वी की गति को क़ैद कर
उसकी धुरी का
अक्ष ना देख ले।

Aug 17, 2007

प्रतिबिम्ब


कैसी ये विडम्बना है
सिरहाने खड़े होकर
देखता हूँ मैं
स्वयम को ही
सोता हुआ
और
बनती बिगड़ती हुयी
आकृतियाँ चहरे की
जो शायद स्वप्निल अवस्था में
देखे हुये द्रश्यों की
प्रतिक्रिया मात्र थी।
खुलते ही आंख
भ्रम का आवरण छिन्न हुआ
वह तो प्रतिबिम्ब था
मेरी ही आकृति का
जो खड़े होकर अपने ही सिरहाने
अपने ही रूप को
सोते में देखता था।