Mar 9, 2010

अभिलाषा


क्या बताऊँ यार
क्यों
अक्सर खो जाता हूँ
मैं
गुम सुम सा होकर
मुख पे
शून्य का भाव लिए
अतीत में !
काफी अरसे से
कुछ कर
गुजरने की तमन्ना है
दिल में
कुछ कर गुजरना है
मुझे
अपने आप को
हिमालय के शिखर तक
ऊँचा उठाने के लिए
और
अपने नाम के शब्दों को
सुबह की
सूर्य की
किरणों से
जोड़ने के लिए
कभी -कभी
जब आता है ध्यान
कम है जिन्दगी
सफ़र है लम्बा
अब
कुछ कर गुजरना ही चाहिए
मुझको
पर
भटक जाता हूँ अक्सर
चलता हुआ
जीवन की
इस लम्बी सी
टेढ़ी मेढ़ी डगर पर
भटकने के साथ -साथ
अटक भी जाता हूँ
जब कभी
मजबूर हो जाता हूँ
फिर
मुख मोड़ कर्तव्य से
खो जाता हूँ
सपनों की दुनिया में
तब ओर भी
मायूस हो जाता हूँ
जब
सपनों के शहर में
खोकर भी
पाता हूँ
अपनी तमन्ना की परछाई का
अक्स
खंडहर का रूप लिए !

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

Yatish said...

क्या खूब पिरोया है ज़ज्बातो को आपने