सुबह की लालिमा को भी देखा
रात के सन्नाटे को भी देखा
धूप में अपने साए को भी साथ-साथ चलते देखा
छांव में अपने साए को भी विलुप्त होते देखा
सुख में अपनों को भी साथ-साथ देखा
दुख में अपनों को भी पराए होते देखा
जीवन में अच्छाइयों को भी अपना कर देखा
जीवन में बुराइयों को भी अपना कर देखा
जिन्दगी को हर हालात में भी जीकर देखा
जिन्दगी में ना चाहते हुए भी मौत का मजंर भी देखा
पर
इन सब के बीच
मानव की मानवता को भी खडंहर होते देखा
उस खंडहर में
उस मजंर को भी देखा
जो
आतंक के साए से भी ज्यादा भयानक था
गरीब में भुख के साए से भी ज्यादा दर्दनाक था
वो था
मासूम बच्चों के कंकालों का ढेर
रात के सन्नाटे को भी देखा
धूप में अपने साए को भी साथ-साथ चलते देखा
छांव में अपने साए को भी विलुप्त होते देखा
सुख में अपनों को भी साथ-साथ देखा
दुख में अपनों को भी पराए होते देखा
जीवन में अच्छाइयों को भी अपना कर देखा
जीवन में बुराइयों को भी अपना कर देखा
जिन्दगी को हर हालात में भी जीकर देखा
जिन्दगी में ना चाहते हुए भी मौत का मजंर भी देखा
पर
इन सब के बीच
मानव की मानवता को भी खडंहर होते देखा
उस खंडहर में
उस मजंर को भी देखा
जो
आतंक के साए से भी ज्यादा भयानक था
गरीब में भुख के साए से भी ज्यादा दर्दनाक था
वो था
मासूम बच्चों के कंकालों का ढेर
2 comments:
sunder bhav......
satyata ka pradrashan kart bahut achhi kavita.
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