Mar 3, 2010

खिलौना


तेरी दास्तान समझ न सका कोई
बचपन से मृत्यु के अन्तिम सफ़र तक
ए जिन्दगी !
कितनी ही परिभाषाएँ बना डाली,
कवियों,महापुरषों ने तुझ पर
पर
तू अपने में ही
मस्त लहराती
तय करती रहती है
सुबह शाम
अपना सफ़र
इस कशमकश में
कोई गम से बन गया शराबी
कोई पागल, कोई कवि, कोई शायर
शायद
कोई-कोई देखकर रंग तेरे
तोड़ गया दम
आधे सफ़र में
दूर खड़ी हंसती है तू
बेबसी पर इन्सान की
किसी-किसी का बना डाला जीवन
जानवर से भी बदतर
क्यों
मेरी परिकल्पना का रूप समझ रहा है
शायद
बनाई है
कितनी रंग बिरंगी खेलने को वस्तुएँ
इन्सान के लिए
पर
अपने लिए खेलने को
सिर्फ इन्सान !

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

krantivardhan said...

good poem on life but it leaves sad impact.would u like to see me in tears.....anand krantivardhan