Sep 11, 2007

उम्मीद


गिर -गिर कर सम्भलता हुआ
सम्भल -सम्भल कर गिरता हुआ
आशा और निराशा की
धुप -छावं में भटकता हुआ
उम्मीदों का काफिला संजोता हुआ
जीवन की डगर पर चलता हुआ
चला जा रहा था राही
मंजिल की तरफ बढता हुआ
चलते -चलते शाम ढले
जब नजर ना आया
निशा मंजिल का
तब बैठ गया
आशा और निराशा की
कशमकश से थक्कर
मंजिल की उम्मीद छोडकर
शाम ढले
पेड की शाख तले
शाम ढली
ढलकर अंधकार में बढ़ी
और
रात बढ़ी
जैसे -जैसे रात बढ़ी
राही की चिन्ता भी बढ़ी
विचारों का काफिला
बढ़ चला मस्तिष्क में
क्या सोचकर चला था
क्या हो रहा है
शायद
इसी को उम्मीदों का टूटना ..............
और
ले गया राही को
भावनाओं के सागर में
समझाता हुआ
परिभाषा भाग्य की
कुछ सोच ही रहा था राही
कि तभी
अंधेरे में कुछ टिमटिमाता दिखा
ध्यान से देखा
पाया जुगनू है
धीरे से आत्मा ने कहा
अब भी तू नही समझा
है जिस तरह
यह छोटा पतंगा
गहन अन्धकार में
है उसी तरह
प्रत्येक जीव की स्थिति संसार में
निराश ना हो
दीप उम्मीद का
जलाए हुए मन में
बढ़ चल
मंजिल की तरफ़
वरना ए राही
वीरान चमन बन कर
रह जायगा
यह तेरा
अनमोल जीवन !

2 comments:

Shastri JC Philip said...

"दीप उम्मीद का
जलाए हुए मन में
बढ़ चल
मंजिल की तरफ़
वरना ए राही
वीरान चमन बन कर
रह जायगा
यह तेरा
अनमोल जीवन !"

इस तरह की सकारत्मक कवितायें बहुत लोगों को प्रोत्साहन देती हैं -- शास्त्री जे सी फिलिप



आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)

संजय भास्‍कर said...

उम्मीदों का काफिला संजोता हुआ
जीवन की डगर पर चलता हुआ
चला जा रहा था राही
मंजिल की तरफ बढता हुआ
चलते -चलते शाम ढले
जब नजर ना आया
निशा मंजिल का
तब बैठ गया

इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....