Aug 17, 2007

प्रतिबिम्ब


कैसी ये विडम्बना है
सिरहाने खड़े होकर
देखता हूँ मैं
स्वयम को ही
सोता हुआ
और
बनती बिगड़ती हुयी
आकृतियाँ चहरे की
जो शायद स्वप्निल अवस्था में
देखे हुये द्रश्यों की
प्रतिक्रिया मात्र थी।
खुलते ही आंख
भ्रम का आवरण छिन्न हुआ
वह तो प्रतिबिम्ब था
मेरी ही आकृति का
जो खड़े होकर अपने ही सिरहाने
अपने ही रूप को
सोते में देखता था।

1 comment:

Yatish Jain said...

आपका प्रतिबिम्ब नेट पर दिखा अच्छा लगा, आशा है यह हमेशा दिखता रहेगा. चिट्ठा जगत मे आपका स्वागत है.