देखकर
इन्सान की
फितरत को
धरा
हो चुकी है
धराशायी
धरती का
सीना चीरकर
ज्वालामुखी भी
कर रहा है
प्रकट
रोष अपना
हिमालय भी
पिघलकर
अपने अस्तित्व
का
नामों निशां
मिटाने पर
है अमादा
क्या है
इन्सानी फितरत
का
इरादा ?
इन्सान की
फितरत को
धरा
हो चुकी है
धराशायी
धरती का
सीना चीरकर
ज्वालामुखी भी
कर रहा है
प्रकट
रोष अपना
हिमालय भी
पिघलकर
अपने अस्तित्व
का
नामों निशां
मिटाने पर
है अमादा
क्या है
इन्सानी फितरत
का
इरादा ?
2 comments:
हर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
गम्भीर प्रश्न उठाती रचना सुन्दर.......
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