कैसी ये विडम्बना है
सिरहाने खड़े होकर
देखता हूँ मैं
स्वयम को ही
सोता हुआ
और
बनती बिगड़ती हुयी
आकृतियाँ चहरे की
जो शायद स्वप्निल अवस्था में
देखे हुये द्रश्यों की
प्रतिक्रिया मात्र थी।
खुलते ही आंख
भ्रम का आवरण छिन्न हुआ
वह तो प्रतिबिम्ब था
मेरी ही आकृति का
जो खड़े होकर अपने ही सिरहाने
अपने ही रूप को
सोते में देखता था।
सिरहाने खड़े होकर
देखता हूँ मैं
स्वयम को ही
सोता हुआ
और
बनती बिगड़ती हुयी
आकृतियाँ चहरे की
जो शायद स्वप्निल अवस्था में
देखे हुये द्रश्यों की
प्रतिक्रिया मात्र थी।
खुलते ही आंख
भ्रम का आवरण छिन्न हुआ
वह तो प्रतिबिम्ब था
मेरी ही आकृति का
जो खड़े होकर अपने ही सिरहाने
अपने ही रूप को
सोते में देखता था।
1 comment:
आपका प्रतिबिम्ब नेट पर दिखा अच्छा लगा, आशा है यह हमेशा दिखता रहेगा. चिट्ठा जगत मे आपका स्वागत है.
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